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चीख़

क्या भारत में मुसलमानों के लिए अब कुछ नहीं बचा?
English  |  हिन्दी

Translated into the Hindi by Nasiruddin. 

 

मैं अपने डॉक्टर के पास आया हूँ। ये ख़ास तरह के डॉक्टर हैं। दिमाग़ में पैबस्त उलझनों की तार और गाँठों को सुलझाने वाले डॉक्टर।  मैं क्लिनिक में रखे चमड़े के भूरे सोफे पर बैठा हूँ।  मेरे बगल में टिश्यू पेपर का डिब्बा पड़ा है। वक़्त गुज़र रहा है और मैं धीरे-धीरे स्याह यादों में लौटता जा रहा हूँ: . . .  मैं एक बेगाने ड्राइंग रूम में हूँ। चाय पी रहा हूँ। मेरे सामने एक टेबल है। इस पर मेरी रिपोर्टिंग वाली नोटबुक पड़ी है। घर पुराना है लेकिन साफ-सुथरा है;  दीवार पर एक तरफ़ छोटी सी वेदी है। इस पर  भगवान गणेश जी की मूर्ति रखी है। दूसरी दीवार पर  हिन्दुत्ववादी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के दो अहम नेताओं दीनदयाल उपाध्याय और लालकृष्ण आडवाणी की तस्वीरें टँगी हैं . . . मैं उत्तर प्रदेश के औद्योगिक शहर दादरी से सटे बिसाहड़ा गाँव के एक घर में हूँ। ठीक मेरे सामने वीर [1]बैठा है। शांत . . . मूरत बना।

मैं यहाँ एक जुर्म की ख़बर की पड़ताल के सिलसिले में आया हूँ। जुर्म वीर ने किया है। हालाँकि, वह तो इसे जुर्म की तरह देखता न मानता है। भारतीय राज्य भी इसे जुर्म की तरह नहीं देखता। उसने इसीलिए तो  को सज़ा भी नहीं दी। वह मेरे बारे में इतना जानता है कि मेरा नाम मुसलमानों जैसा है . . .  बस मोहम्मद अख़लाक़ के नाम से एक लफ़्ज़ ही इधर से उधर करना है। बावन साल का वही मोहम्मद अख़लाक़ जिसे उसने और हिन्दुओं के उग्र समूह ने कुछ महीने पहले ही पीट-पीट कर मार डाला था। अब हम सब ऐसी वारदात को “लिंचिंग” के नाम से ही जानने लगे हैं। ख़ैर। वह 28 सितम्बर 2015 की रात थी। हम अभी जहाँ बैठे हैं, यह सब वहाँ से बमुश्किल पचास मीटर दूर ही हुआ था। मैं उससे बातचीत करने की कोशिश शुरू करता हूँ इस बीच उसके कई हिमायती इकट्ठा हो जाते हैं। उसके अगल-बगल घेरा बनाकर खड़े हो जाते हैं।

अचानक, मेरी रगों में तेज़ तनाव महसूस होता है। खू़न की रफ़्तार तेज़ हो जाती है। दिल तेज़ी से धड़कने लगता है। मेरा दिमाग़ ख़तरों को देख पाता,  इससे पहले मेरी रगें ख़तरों को भाँप लेती हैं। लेकिन उतनी ही तेज़ी से मेरा रिपोर्टर वाला दिमाग़ चलता है। मैंने ख़ुद को संभाला और फौलादी फ़ोकस के साथ अपने को तैयार किया; मैंने अपने जज़्बात पर क़ाबू किया और इंटरव्यू शुरू किया।

मैं वीर से पूछता हूँ: अख़लाक़ ने ऐसा क्या किया था कि उसकी हत्या करनी पड़ी। क्या आप मुझे पूरी बात शुरू से बता सकते हैं? कुछ पल की ख़ामोशी के बाद, वह मुझे बताता है कि अख़लाक़ का जुर्म था: “गो-हत्या।” अख़लाक़ ने एक ऐसे पशु की हत्या की थी, जिसे भारत के हिन्दू पवित्र मानते हैं . . . और इस कृत्य के लिए उसे माफ़ नहीं किया जा सकता था उसके ज़रिये एक मिसाल पेश करनी थी। संदेश देना था ताकि बाकी मुसलमान यह समझ सकें कि पवित्र गाय की हिफ़ाज़त के मामले में हिन्दू किस हद तक जा सकते हैं। भारतीय किस हद तक जा सकते हैं। लोगों को यह जानना चाहिए कि अख़लाक़ की हरकतें राष्ट्र-वरोधी थीं।

दिसम्बर की सर्दी के बावजूद मेरा बदन पसीने से तरबतर हो जाता है। मैं अपने को सम्हाले रखता हूँ। ख़ामोश रहता हूँ। कम से कम बोलने की कोशिश करता हूँ। बस, कभी-कभार कुछ चीज़ें समझने के वास्ते पूछता रहता हूँ। मैं किसी भी ऐसे जज़्बात को ज़ाहिर करने से बचता हूँ, जिससे कहीं से भी मेरा मुसलमान-पन ज़ाहिर हो . . .  या मेरी बेबसी-पन मुझे धोखा दे जाये। जैसे-जैसे मुसलमानों की बुराइयों, उनकी साज़िशों, उनके जुर्म के बारे में वीर की नफ़रती बकवास बढ़ती जाती है, मुझे अपने अंदर अहसास-ए-जुर्म बढ़ता हुआ महसूस होता है। एक ख़ौफ़नाक ख़्याल मेरे ज़हन में कौंधता है: क्या यहाँ उसके घर में बैठकर, बिना कोई विरोध किये, यह सब सुनते हुए, कहीं मैं उसके साथ ही तो नहीं मिल गया हूँ? अख़लाक़ की उस लिंचिंग की वीडियो दिखाने के लिए वह अपना फ़ोन निकालते हुए कहता है, “हमारा ख़ून खौल गया था।”

मेरा भी ख़ून खौल रहा है। मैं चिल्लाना चाहता हूँ।लेकिन मैँ ख़ामोशी से बैठा उसकी बातें सुन रहा हूँ। मैं ख़ामोशी से उसकी बातें नोट कर रहा हूँ। मुमकिन है, अख़बार में छपने से पहले मेरी ख़बर पढ़ने वाला कोई साथी, इस रिपोर्ट के सिलसिले में कुछ पूछताछ या पड़ताल करे। इसलिए मैं हर छोटी बात अपनी नोटबुक में दर्ज़ कर रहा हूँ। जब मैं चलने के लिए उसके घर से निकलता हूँ, मुझे लगता है कि वीर मेरे पीठ पीछे हँस रहा है। मुझ पर फ़ब्तियाँ कस रहा है। भटका हुआ धर्मनिरपेक्ष रिपोर्टर मानकर मेरे वजूद को नकार रहा है। सबसे बढ़कर मुझे “कटुआ” कह कर ताना दे रहा है। शायद, वह मुझे राष्ट्रविरोधी कहता हो। पाकिस्तान भी कह रहा हो।

जिन जज़्बात को मैंने उस दिन और उसके बाद लम्बे अर्से तक अपने अंदर दबाकर-छिपाकर रखा था, तीन साल बाद वही सब, उस मन को पढ़ने-समझने वाले डॉक्टर के सामने बाहर निकल आया।  मैं बेबसी और डर के ग़ुस्से से अंदर तक भरा पड़ा हूँ। मैं शर्मिंदगी भी महसूस करता हूँ। मुझे लगता है कि पत्रकारिता का चुनाव करके, इसके निष्पक्ष और तटस्थ रहने की रवायत निभाकर, मैंने अपनी पहचान, अपने समुदाय के साथ कहीं न कहीं धोखा किया है।

थेरेपिस्ट ने यानी इस मन के डॉक्टर ने पहली बार मुझे अपनी तकलीफ़ ज़ाहिर करने के साथ ही अपने और अपने लोगों का सोग मनाने का मौक़ा दिया। उन सब बातों का सोग जो भारत में हम लोग हर रोज़ नफ़रत की शक्ल में झेल रहे हैं। ज़बरदस्त नुक़सान हो जाने का अहसास मेरे ज़हन में फैलता जाता है। मेरा दिल बहुत भारी है। उस रात मैं ख़ूब रोता हूँ। जब आँख लगी तो ख़ौफ़नाक ख़्वाबों ने घेर लिया। मैँ ख़ुद को घिरा हुआ पाता हूँ। हिन्दुत्वादियों की भीड़ मुझे पीटती है . . .  ख़ौफ़ और सोग के मायाजाल ने तब से अब तक मुझे इस तरह जकड़ रखा है कि यह दु:स्वप्न रात, दिन और घंटों के साथ ख़त्म ही नहीं होता।पैंतीस साल की उम्र में मैं उस मनोचिकित्सक तक कैसे पहुँचा? कुछ हद तक, यह सदमा और जख़्म मेरे पेशे की देन थी। कुछ हद तक इसकी वजह, मेरे रिपोर्टर होने की पहचान के साथ- साथ, मुकम्मल तौर पर मेरी मुसलमान पहचान का चिपक जाना था।

सन 2012 से 2018 तक, मैंने द हिन्दू के दिल्ली ब्यूरो में एक रिपोर्टर के रूप में काम किया था। द हिन्दू को अंग्रेज़ी का तरक़्क़ीपसंद अख़बार माना जाता है। यही नहीं, यह भारत के सबसे सम्मानित अख़बारों में एक है। रिपोर्टर के तौर पर शुरुआती दिनों में मुझे साम्प्रदायिक झड़पों और दंगों को कवर करने का काम सौंपा गया था। इस दौर में ऐसी हिंसा दिल्ली और उत्तर भारत के ज़्यादातर हिस्सों में तेजी से बढ़ रही थी। मैं ब्यूरो में अकेला मुसलमान रिपोर्टर था। ऐसा लगता है कि वाम-उदारवादी सोच के ख़ास नज़रिये के तहत मुझे इन मुद्दों को कवर करने के लिए लगाया गया था। जब मैं हिन्दुत्ववादी नेत़ृत्व में होने वाली हिंसा के बारे में रिपोर्ट करने लगा, तब दक्षिणपंथियों का एक समूह, अख़बार और मेरी रिपोर्टों के ख़िलाफ़ हमलावर हो गया। उसने मुझे और अख़बार को हिन्दू-विरोधी कहना शुरू कर दिया।

मेरे या मेरे अख़बार के साथ जो हो रहा था, यह कोई अकेली घटना नहीं थी यह पूरे भारत में चल रही एक बड़ी सामाजिक-राजनीतिक प्रकिया का हिस्सा थी। ख़बर के सिलसिले में,  मैं राजधानी दिल्ली की ख़राब आबो-हवा के बीच और इसके आस-पास के औद्योगिक शहरों के चारों ओर मोटरसाइकिल से सफ़र करता था।  इस सफ़र के दौरान मैं महसूस करता था कि आज़ादी के बाद वक़्त-वक़्त पर होने वाले साम्प्रदायिक संघर्ष, अब काफ़ी बढ़ गये हैं। जल्दी-जल्दी हो रहे हैं। यही नहीं, वे अब बात-बात में रोज़मर्रा होने लगे हैं। इन्हें हमारी ज़िंदगी का हिस्सा बनाया जा रहा है। ऐसा नहीं है कि बाकी भारत का उदारवादी अंग्रेज़ी मीडिया इन सबका नोटिस ले रहा था। यहाँ तक कि जब यह बेहद साफ़ हो गया कि हिन्दू समाज के बड़े हिस्से में हिन्दुत्व के ख़्याल को आम बनाया जा रहा है . . .  रोज़मर्रा की सोच में शामिल किया जा रहा है, उदारवादी लेखकों- पत्रकारों- टिप्पणीकारों ने इसे “फ्रिंज” यानी हाशिये की विचारधारा के रूप में लिखना-बताना जारी रखा।

उन लोगों के बारे में खबरें लिखना, जो कल हमारा ख़ून कर सकते हों, एक ख़ौफ़नाक तजुर्बा है।

मुझे बहुत ताज्जुब नहीं हुआ था जब मई 2014 में नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री के रूप में चुने जाने से अंग्रेज़ी बोलने वाला उदार अभिजात वर्ग बेफ़िक्र था। उन्होंने तो इसे सिर्फ़ लोकप्रिय भावनाओं में अचानक आये बदलाव की तरह देखा। वे इस बात की थाह नहीं लगा सके कि किस तरह पिछले कुछ दशकों में भारत के ज़्यादातर ग्रामीण और शहरी इलाकों में ख़ामोशी और कुशलता से हिन्दुत्व का एक बड़ा जाल और ढाँचा तैयार किया गया था। चुनावों के बाद मुझे लगने लगा कि हिन्दुत्व के बढ़ते जाल पर और ज़्यादा ध्यान देने की ज़रूरत है। इसीलिए, ज़मीन पर असलीयत में क्या हो रहा था, यह देखने के लिए मैंने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक छोटे से शहर मेरठ में काम करने का फ़ैसला किया मैंने अपना तबादला वहाँ करा लिया। इसी वजह से मैँ वीर जैसे लोगों के नज़दीक आया।

मैंने हिन्दुत्व के नाम पर चौक़ीदारी करने वालों से जुड़ी काफ़ी रिपोर्ट की थी। मैंने ऐसे अनेक चरमपंथी नेताओं से  बात की जो इस्लाम के बारे में काफ़ी गंदी बातें कहते थे। इनमें से कई अकसर मेरे समुदाय के ख़िलाफ़ सरेआम सामूहिक हिंसा का एलान करते थे। हालाँकि, चाहे कितने भी तनावपूर्ण हालात क्यों न हो, तब तक मैंने कभी भी बतौर मुसलमान डर का अहसास नहीं किया था। चरमपंथी नेता जब भी मुझसे बात करते या मेरा नाम लेते तो वे “जी” ज़रूर लगाते थे। बातचीत के बाद मुसकुरा कर विदा करते थे। वे मुझे बतौर पत्रकार लेते थे और यही समझ कर बात करते थे। इसके बरअक्स, मैं भी ख़ुद को साम्प्रदायिक सोच से इतर,एक पढ़ा-लिखा, ऊपर तक पहुँच रखने वाला समझता था।

लेकिन मोदी के चुने जाने के बाद हालात बदलने लगे। नक़ाब आख़िरकार पूरी तरह हट गये। जिस विनम्रता और तहज़ीब को मैं अपनी ढाल समझता था, अब वे नहीं रहे। मानो पूरे भारत को साम्प्रदायिक हिंसा की महामारी ने अपने आगोश में लेना शुरू कर दिया था। ह्यूमन राइट्स वाच की एक रिपोर्ट बताती है कि मई 2015 से दिसम्बर 2018 के बीच “गाय से जुड़ी हिंसा” में कम से कम 44 लोग मारे गये। इस माहौल में अब मैं धीरे-धीरे अपने चरमपंथी सम्पर्कों से बात करने में हिचकने लगा। मुझे तो साफ़ दिख रहा था कि उनके कहे अलफ़ाज़, हक़ीकत में बदल रहे हैं। इनमें से कई तो सक्रिय तौर पर और लगातार मुसलमानों पर हमले और यहाँ तक कि उनकी हत्याओं में शामिल थे। बेख़ौफ़। किसी सज़ा की परवाह से बेफ़िक्र।

दोस्तों ने सलाह दी कि रिपोर्टिंग करने के दौरान मैं अपनी पहचान छिपा लिया करूँ। मैंने इस सलाह को नहीं माना। मुझे लगता था, मुमकिन है मेरा नाम सुनकर हिन्दुत्ववादी अपनी असलीयत को आसानी से ज़ाहिर कर दें। हालाँकि, इसके साथ ही मुझे इस बात का बख़ूबी अहसास था कि मोदी के भारत में मुसलमानों जैसा मेरा नाम, मुझे पीट-पीट कर मरवा भी सकता था। हालाँकि, मैं अब सोचता हूँ कि बिना कोई ख़ौफ़नाक कीमत चुकाये, क्या कोई मुसलमान रिपोर्टर ऐसे मुद्दों में डूबकर, गहराई से काम कर सकता है।

उन लोगों के बारे में खबरें लिखना, जो कल हमारा ख़ून कर सकते हों, एक ख़ौफ़नाक तजुर्बा है। महज़ एक खबर, अनिश्चितता, दर्द, डर, सदमा, गु़स्से से भरी अँधेरी रात के गर्त में ढकेल देने के लिए काफ़ी है। यह दोधारी तलवार है। मैं तो रिपोर्टिंग करने के लिए ही बना था। शायद यह बदला नहीं जा सकता था। इसके बाद भी मैं ख़ुद को अपने मुसलमान साथियों की तरह ही लुटेरे, हिंसक, नफ़रती भीड़ के सामने बेबस महसूस करता था। अब चाहे जो हो, यह साफ़ हो गया था कि मुसलमान पत्रकार अब महज़ तथ्यों की पड़ताल करने वाले, बेलौस होकर सब कुछ होते, खड़ा-खड़ा देखते नहीं रह सकते। मोदी के भारत में हम चलते-फिरते निशाना बना दिये गये थे। तकलीफ़देह है, लेकिन हम ख़ुद ही कहानी का हिस्सा बन गये थे . . .  उस कहानी का हिस्सा, जिसे बताने के लिए मैं अडिग था। मेरे दिमाग़ी सेहत पर इन सब चीज़ों के असर की बात तो बहुत बाद में पता चली।


इंसान सूअर और पवित्र गाय

उत्तर प्रदेश में मैँने चार साल काम किया। इस दौरान मैंने “लिंचिंग” की कई घटनाओं के बारे में ख़बरें लिखीं। अख़लाक़ की लिंचिंग की घटना, इनमें पहली ख़बर थी। अपनी ख़बरों के लिए नेटवर्क बनाने के वास्ते मैं हिन्दुत्व के इन चौकीदारों का यक़ीन हासिल करने में अकसर हफ़्तों लगा देता। वे कोई ख़ूँख़ार हत्यारे नहीं थे। असलीयत में तो ज़्यादातर नौजवान, बेरोज़गार, आम इंसान थे। देश की मौजूदा आर्थिक विकास प्रक्रिया में इनका कोई भविष्य नहीं था। मैं उनके साथ खाना खाता। उनके घरवालों के साथ घूमता-टहलता। उनके दोस्तों के गोल में उठता-बैठता . . . वे मुसलमानों का मज़ाक उड़ाते और उन्हें गालियाँ देते . . . और मैं यह सब सुनता रहता। या यों कहें, इन सबमें बेझिझक शामिल रहता। हालाँकि, मैं अपनी मुसलमान वाली पहचान के बारे में लगातार होशियार रहने की कोशिश में जुटा रहता था लेकिन कुछ था . . . इसीलिए मैंने सवाल करने भी छोड़े नहीं थे। 

शायद, मैंने इन सब लोगों में सबसे अहम रिश्ता शामली के रहने वाले विवेक प्रेमी के साथ बनाया। सन 2015 की गर्मियों में बयालिस साल के एक मुसलमान मज़दूर मोहम्मद रेयाज़ को सरेआम पीटने के आरोप में उसे कुछ वक़्त के लिए गिरफ़्तार किया गया था। रेयाज़ पर गो-हत्या का आरोप था। उस वक़्त प्रेमी की उम्र महज़ 22 साल थी। इस पिटाई का वीडियो क्लिप व्हाट्सएप पर वायरल हुआ था। इस एक मिनट और 24 सेकेंड के वीडियो में प्रेमी को हिन्दू भीड़ के जय-जयकारे के बीच रेयाज़ को पीटते हुए देखा गया। प्रेमी पर जैसे जुनून सवार था। वह अपनी बेल्ट से ताबड़तोड़ बस वार किये जा रहा था। रेयाज़ उसके सामने घुटनों के बल रहम की भीख माँग रहा था। उसके दोनों हाथ पीछे की तरफ़ बँधे थे। आँखों और उसकी फटी भूरी कमीज़ से ख़ून के क़तरे बह रहे थे . . . और यह सब शहर के भीड़ भरे बाज़ार में हो रहा था। प्रेमी को यह बात पता थी कि यह सब कैमरे में क़ैद हो रहा है। इसीलिए वह बीच-बीच में रुकता भी था। मानो वह वीडियो के लिए पोज़ दे रहा हो। उसकी नफ़रत से भरी आँखें, आज तक मेरे ज़हन में पैबस्त हैं।

इस वीडियो ने प्रेमी को स्थानीय हीरो बना दिया। जल्द ही वह बजरंग दल का अहम लीडर बनकर उभरने लगा। व्हाट्सएप के इस्तेमाल के लिए उसकी तारीफ़ होती। जिस तरह उसने निगरानी के लिए स्थानीय मुखबिरों का जाल बनाया था, उसकी तारीफ़ होती। उनका सिर्फ़ एक ही मक़सद था- मुसलमानों, अलग-अलग मज़हब के मानने वाले जोड़ों और कथित गो-हत्यारों में ख़ौफ़ पैदा करना।

सन् 2015 की बात है।  प्रेमी हाल ही में जेल से छूट कर आया था। मैं किसी और ख़बर पर काम कर रहा था। इसी दौरान, मेरी उससे मुख़्तसर बातचीत हुई। हालाँकि, मैंने उसके केस के बारे में तब कुछ लिखा नहीं था। लेकिन संगठन बनाने की उसकी सोच-समझ ने मेरे रिपोर्टर दिमाग़ का ध्यान ज़रूर खींचा। तीन साल बाद कोलम्बिया विश्वविद्यालय में पत्रकारिता की पढ़ाई के दौरान मैंने उसके बारे में लिखने के लिए अनुदान की दरख़्वास्त दी। मुझे लगा कि उसके ज़रिये भारत भर में फैले हिन्दुत्व लड़ाकुओं के दिमाग़ की तह तक पहुँचने और उनके जाल को समझने का ज़बरदस्त मौक़ा मिलेगा। भले ही मुझे उनकी दिमाग़ की खिड़की खोलने के लिए कितनी भी मेहनत क्यों न करनी पड़े, मैं करने को तैयार था। एहतियात बरतने की कई शर्तों के साथ अनुदान की मंज़ूरी मिल गयी। शर्तें थीं: मैं एक हिन्दू टैक्सी ड्राइवर रखूँगा। साथ में एक हिन्दू स्ट्रींगर रखूँगा . . . और इसी तरह की कई सारी बातें। मैंने इस रिपोर्ट पर काम करना शुरू किया। यही रिपोर्ट अप्रैल 2020 में वायर्ड मैगज़िन में छपी।

आमतौर पर किसी कहानी की तह तक पहुँचने में मुझे जितना वक़्त लगता है, उससे ज़्यादा यहाँ लगा। एक बात तो यह थी कि प्रेमी और उसके चेलों की फ़ौज़ बार-बार मेरी मुसलमान पहचान पर हमले करने में लगी थी . . . और इसी पहचान के आधार पर मुझे मेरी औक़ात बताने में जुटी थी। उन्हें लगता होगा कि शायद यह सब देख-सुनकर मैं इस काम इरादा छोड़ दूँ। तो पहले दो हफ़्ते इन लोगों ने मेरे धीरज का इम्तेहान लेने में गुज़ारे। इस दौरान कई बार मुलाक़ातें हुईं। इन मुलाकातों में प्रेमी घुमाफिराकर हिन्दुत्ववादियों की मुसलमानों के साज़िशी सिद्धांतों के बारे में अपने गुबार निकालता। किस तरह इन्होंने भारत को बर्बाद कर दिया है, यह सुनाता। दिलचस्प है, कई बार तो ऐसी ही बातें भारतीय जनता पार्टी के चुने गये नेताओं के मुँह से मैं टेलीविज़न पर भी सुनता। वह इस्लामी हिंसा के इतिहास के बारे में अनर्गल बातें करता। वह बोलता, किस तरह सोलहवीं शताब्दी में मुग़ल बादशाह बाबर के आने के बाद यह हिंसा शुरू हुई। किस तरह से यह बेबस हिन्दू प्रजा, सदियों तक इस्लामी साम्राज्यवाद के तहत रहने को मजबूर हुई। वह मुझे जानकारी देता, मुसलमान बादशाहों ने जबरन मज़हब बदलावकर अनगिनत हिन्दुओं से इस्लाम कुबूल करवाया। और तो और, वह कहता .  . . असलीयत में सभी मुसलमान जिहादी मानसिकता वाले हैं। वे हिन्दुओं को बरगलाते-लुभाते हैं। उनका मज़हब बदलवा देते हैं। प्रेमी खुद सुनार था। तकनीकी रूप से यह एक “पिछड़ी” जाति मानी जाती है। उसे इस बात का पुख़्ता यक़ीन है कि जाति व्यवस्था भी किसी न किसी तरह “मुस्लिम औपनिवेशीकरण” का ही नतीजा है।

एक दिन की बात है। मैं प्रेमी के साथ बातचीत के लिए बैठा ही था कि उसके एक साथी राणा ने मुझ पर एक “अली जी, तुम अपने मुसलमान लोगों से क्यों नहीं बात करते। वे इस देश में हमेशा कुछ न कुछ गड़बड़ करने में लगे रहते हैं। वे भारत को अपनी मातृभूमि नहीं मानते हैं। न ही वे इसका सम्मान करते हैं।” तब ही एक दूसरा बोलता है, “यहाँ के अधिकतर लोकल क्रिमिनल को देखो, सब मुसलमान हैं। यह सब अच्छी बात नहीं है। मुसलमान लगातार हिन्दुओं के लिए समस्या पैदा करते रहते हैं। हम तो ज़्यादातर शांत रहते हैं। लेकिन जब हम इनके ख़िलाफ़ कुछ कहते या करते हैं तो सेक्यूलर मीडिया हम पर ही इल्ज़ाम लगाने लगता है।” वे मुझसे इस तरह से बात कर रहे थे, जैसे मैं अपने समुदाय का नुमाइंदा और प्रवक्ता हूँ। राणा कहता है, “मुसलमानों को औक़ात में रहना सीखना होगा। वे यहाँ रहते हैं। अगर उन्हें यहाँ रहना है तो उन्हें बड़े भाइयों का सम्मान करना होगा। नहीं तो यह बड़े भाई की ज़िम्मेदारी है कि उन्हें यह सब सिखाये।” राणा अपनी रौ में बोलता जाता है, “वे रहते यहाँ हैं और गाते पाकिस्तान का हैं। वे रहते और खाते भारत का है लेकिन गुण पाकिस्तान का गाते हैं।” 

ऐसी बातें सुनकर मुझमें ग़म और ग़ुस्सा भर जाता। लेकिन मैं बेबस था। मैं कुछ कर नहीं सकता था। मैं अपने जज़्बात को क़ाबू में रखता। सर झुकाकर अपनी नोटबुक में छोटी से छोटी तफ़सील नोट करता जाता। कभी-कभार, प्रेमी जब मेरा फ़ोन उठाता तो वह ज़ोरदार तरीक़े से “जय श्री राम” बोलकर मेरा अभिवादन करता। यह बजरंग दल का जयघोष है। अक़सर लोगों को पीटते वक़्त यही जयघोष सुनाई देता है। कई बार मैं भी उसको ख़ुश करने के लिए जवाब में “जय श्री राम” कहता।

प्रेमी के बारे में लिखने के बाद मेरे अंदर जैसे कुछ बहुत ज़रूरी हिस्सा टूट सा गया।

धीरे-धीरे मुझे यह समझ में आने लगा कि उनकी नफ़रत सिर्फ़ आम मुसलमानों के लिए ही नहीं थी बल्कि बतौर मुसलमान पत्रकार, ज़ाती तौर पर मैं भी उनका निशाना था। इन सबके बावजूद, मुझे यह बात मानने में कोई हिचक नहीं है कि प्रेमी और उसके साथियों के साथ मेरा अच्छा रिश्ता बन गया था। इससे एक अलग तरह की ऊहापोह पैदा हो गयी। एक ओर, मैं प्रेमी और उसके साथियों को समझने पर आमादा था। उनकी प्रेरणा की गहराई से पड़ताल करना चाहता था। मेरा मानना था कि उनके बारे रिपोर्ट करना और उन्हें दुनिया के सामने लाना ज़रूरी है। जैसा कि मैंने प्रेमी को कई बार कहा कि हिन्दुत्व के जाँबाज योद्धा  के रूप में उसका काम, काफ़ी अहम है। उसका काम, भारत के भूत-वर्तमान और भविष्य को पूरी तरह बदल रहा है। दूसरी ओर, मुझे यह भी लगता कि क्या मेरी रिपोर्ट से कुछ बदलेगा भी? असलीयत में तो इसके उलट होने की आशंका ज़्यादा है। अगर एक मशहूर अमरीकी मैगज़िन में मेरे लिखने की वजह से प्रेमी और मशहूर हो गया तो . . .?  कहीं इस लेख की वजह से उसे अपने संदेश को ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुँचाने में मदद तो नहीं मिलेगी? क्या किसी ऐसे व्यक्ति को समझने की कोशिश करना नैतिक रूप से सही था जिसकी ज़िंदगी ने हिंसा की विचारधारा को काफ़ी अहम बना दिया है?

जब प्रेमी के बारे में रिपोर्ट प्रकाशित हुई तो इसने लोगों में काफ़ी दिलचस्पी पैदा की।  दक्षिणपंथी हिन्दुत्ववादी समूहों के अंदरूरनी कामकाज पर रोशनी डालती,  कम से कम पश्चिम के किसी मीडिया में छपी यह पहली रिपोर्ट थी। शुरू में इस रिपोर्ट पर आयी प्रतिक्रिया से प्रेमी परेशान था। इसके छपने के बाद मेरे पास उसका जो पहला कॉल आया, उसमें शिकायत का लहज़ा था। लेकिन कुछ ही घंटों बाद मुझे यह जानकर ख़ासा ताज्जुब हुआ कि बजरंग दल के उसके साथी इस रिपोर्ट को सोशल मीडिया पर साझा कर रहे हैं। वे बेहद ख़ुश हैं। वे इस लेख की शोहरत में अपने काम को सही ठहराये जाने का अक्स देख रहे थे। फ़ेसबुक पर आयी एक टिप्पणी यों थी “प्रेमी जैसे हिन्दुओं के शेर ने ट्रम्प के अमरीका में भी  झंडा गाड़ दिया।”

वायर्ड में छपी रिपोर्ट ने सबका ध्यान इस ओर खींचा कि किस तरह हिन्दुत्व के प्रभुत्व वाले भारत में  नफ़रत को रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा बना दिया गया है। इसके छपने के बाद मुझे भारत में मुसलमानों के सताये जाने के बारे में बोलने के लिए कई जगह बुलाया गया। इन बैठकों की नीयत अच्छी थी, लेकिन मुझे इनमें हिस्सा लेने में न जाने क्यों परेशानी हो रही थी।

इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि मैं हिन्दुत्ववादियों के काम की कितनी नुक़्ताचीनी करता हूँ। मुझे डर है कि कहीं आख़िर में, मैं उसके मानने वाले को इंसानीयत का चोला पहनाकर हिन्दुत्व की हिंसक विचारधारा को सही तो नहीं ठहरा रहा? और तो और, मैं तो उनकी तरफ़ मीडिया का ध्यान खींच रहा हूँ। इसके लिए वे लालायित भी रहते हैं।

जैसे-जैसे मेरी रिपोर्ट और लोगों तक पहुँचती है, अहसास-ए-जुर्म और शर्म के साथ मेरी जद्दोजेहद बुरे दौर में पहुँचती जाती है। मैं अब इसके बारे में फिर से लिखने के लिए ख़ुद की हौसलाआफ़ज़ाई नहीं कर सकता।  हाल ही में, कोंडे नास्ट एंटरटेनमेंट ने इस रिपोर्ट पर डाक्यमेंट्री बनाने का फैसला किया। मुझे पक्का यक़ीन नहीं था कि डाक्यूमेंट्री का ख़्याल प्रेमी को पसंद आयेगा भी या नहीं। लेकिन जब मैंने उसे यह ख़बर दी तो उसने जवाब में मुझे चुंबन वाले ढेर सारे इमोजी भेजे।


सब कुछ ख़त्म होते जाने का अहसास

मुझे 2017 के पतझड़ में दक्षिणपंथी हिन्दुत्वादियों की ओर से अपनी रिपोर्टिंग के लिए  मौत की पहली धमकी मिली। यह कन्नड़ भाषा की पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या के तुरंत बाद की बात है। इनकी हत्या कथित रूप से हिन्दुत्ववादी संगठनों के सदस्यों ने की थी। गौरी लंकेश हिन्दुत्व के उभार पर लगातार लिख रही थीं।

पहली धमकी के बाद मैंने घर बदले। सैर के लिए बाहर जाना बंद कर दिया। मैं हर वक़्त अनजाने ख़ौफ़ की हालत में ज़िंदगी गुज़ारता। मैं चलता तो बार-बार मुड़कर देखता . . .  और तो और जब मैं सरेबाज़ार घूम रहा होता तब भी मैं मुड़-मुड़कर देखत . . . कोई है तो नहीं। घर वापस आने पर मैं कई बार दरवाज़े के ताले की जाँच करता। यहाँ तक कि दिल्ली से न्यूयॉर्क पहुँच जाने के बाद भी, मैं आधी रात को अचानक उठ जाता और दरवाज़े पर लगे ताले की जाँच करता।  हमला या पीछा किये जाने का ख़ौफ़ हर जगह बरक़रार है।

प्रेमी के बारे में लिखने के बाद मेरे अंदर जैसे कुछ बहुत ज़रूरी हिस्सा टूट सा गया। शायद यह भारत के प्रति मेरा यक़ीन और उम्मीद थी। ख़ुद को दूसरे दर्जे़ के शहरी की तरह महसूस करना, बहुत बड़ा अलगाव था। प्रेमी के साथ का वह आख़िरी दिन था। प्रेमी ने मुझसे कहा था: “अली जी, एक दिन ऐसा आयेगा जब आपकी आने वाली पीढ़ियों को अगर भारत में रहना होगा तो उन्हें धर्म परिवर्तन करना ही होगा। हो सकता है कि मैं उस दिन को देखने के लिए ज़िंदा न रहूँ, लेकिन एक दिन ऐसा होगा, यह तय है।”

जैसे-जैसे भाजपा मज़बूत होती जा रही है, जैसे-जैसे ख़बरिया चैनल नफ़रत फ़ैलाने को अपना कारोबार बनाते जा रहे हैं, जैसे-जैसे मुसलमानों को सोचे-समझे तरीक़े से दंगों और रोज़मर्रा के छोटे-छोटे हमलावर हरकतों के ज़रिये से निशाना बनाया जा रहा है—मैं ऐसा सोचने पर मज़बूर हूँ:  मुझे लगता है कि प्रेमी और उसके गिरोह ने जो कुछ भी मुझे बताया था, वह सब सच हो रहा है। मेरा दिल यह देखकर टुकड़े-टुकड़े होता है कि कैसे आम औसत हिन्दू, प्रेमी और उस जैसे लोगों का ही एक रूप बनते जा रहे हैं। प्रेमी के व्हाट्सएप ग्रुपों पर मुझे जो नफ़रती संदेश देखने को मिलते थे, वे अब बड़े तौर पर हिन्दू घरों की पारिवारिक व्हाट्सएप की चर्चाओं में साझा हो रहे हैं।

भारत के मुसलमानों के लिए “मोदी के भारत” में ज़िंदगी गुज़ारना मानो दु:स्वपन में जीना है . . .  और मुसलमान पत्रकार इन पर रिपोर्ट करने और लिखने, एक पेशेवर के रूप में इन सबका सामना करने और दस्तावेज़ बनाने वाले, सबसे पहली कतार में खड़े लोग हैं। इन सबके बाद भी हमारी पहचान, हमारा एतमाद छीन लेती है। हम तो बोलने से भी डरते हैं। हम जो महसूस करते हैं, उसे हम रिपोर्ट नहीं कर सकते और लिख नहीं सकते हैं। यही हमारा मुक़्क़दर है। हमारी खबरें अब हिन्दुत्व के डरवानेपन के ख़िलाफ़ मदद नहीं कर सकतीं। मुझे मालूम है कि ज़्यादातर भारतीय मुसलमान पत्रकार निराशा और सदमे का सामना कर रहे हैं। और सिर्फ़ उन लोगों को ही अपनी पहचान, पहचान पर होने वाले हमले और इन सबके साथ तालमेल बैठाने पर सोचने- विचार करने का मौक़ा मिलता है, जो समाज में ऊँचे पायदान पर हैं। सच कहूँ तो मैं कुछ हद इस सच्चाई को बर्दाश्त करने की सलाहियत रखता हूँ और इसके बारे में खुलकर बात कर सकता हूँ . . . क्योंकि मैं अब भारत में किसी मीडिया में काम नहीं करता। वह मीडिया जो अब मोदी हुकूमत के कब्ज़े में है।

मोदी ने हम सभी को हमारी तात्कालिक पहचान तक सीमित कर दिया है।

संकट के इस दौर में, मुसलमान पत्रकारों के कुछ ही दोस्त हैं, जो असलीयत में उस दर्द और अँधेरे को समझते हैं, जिनके बीच हम जी रहे हैं। हाल ही में, एक अहम भारतीय मुसलमान पत्रकार, राणा अय्यूब ने सीएनएन को बताया कि भारतीय मीडिया वेंटिलेटर पर है। वे मीडिया की उस नाकामी के बारे में इशारा कर रही थीं जो महामारी के दौर में बदइंतज़ामी पर मौजूदा सरकार से सवाल-जवाब नहीं कर सकी। यह एक ऐसा सच है जिसे ज़्यादातर सम्पादक खुलेआम और निजी बातचीत में क़ुबूल करते हैं। लेकिन राणा अय्यूब की इस टिप्पणी की वजह से कई कुलीन ब्राह्मण पत्रकारों और टिप्पणीकारों ने उनकी साख़ पर ही सवाल उठा दिया। इन्होंने राणा की पत्रकारिता पर  हमले किये। वे भूल गये कि मोदी को सीधे चुनौती देने की वजह से राणा को सालों से जोखिम का सामना करना पड़ रहा है। यह एक ऐसा सच है, जिसे अंतरराष्ट्रीय संस्थानों ने भी अपने दस्तावेज़ों में दर्ज़ किया है।

भारत के समाचार कक्ष की ताक़त कुछ ख़ास तरह के लोगों के हाथों में सिमटी है। इनमें सवर्ण माने जाने वाली जाति के हिन्दू पुरुष और अब कुछ हद तक इन्हीं समूहों की महिलाएँ भी शामिल हैं। राणा अय्यूब और अनगिनत दूसरे मुसलमान, बहुजन और आदिवासी पत्रकारों को भारत की मुख्यधारा की मीडिया में बहुत कम क़ुबूल किया जाता है। मीडिया का मौजूदा ढाँचा मोदी के आशीर्वाद के बिना काम करने में नाकाम है। यह वाक़ई में ज़िंदगी बचाने की मशीन पर टिका है।

कुछ उदार या वामपंथी झुकाव वाले कुलीन पत्रकार, जिनमें से अधिकांश सवर्ण हैं, भारत में मुसलमानों के ख़िलाफ़ नरसंहार के दिनोंदिन बढ़ते ख़तरे में अपनी भूमिका पर सवाल उठाने को तैयार हैं न ही वे भारतीय मुस्लिम पत्रकारों को अपनी सच्चाई बताने के लिए जगह देने को राज़ी हैं। असलीयत में, भारत में पत्रकारों और बुद्धिजीवियों के एक ख़ास समूह ने खुले तौर पर मोदी का समर्थन किया और उसके लिए रास्ता तैयार किया। उनकी आँखें अब जाकर कुछ खुलीं जब मोदी सरकार के कमजोर आर्थिक प्रदर्शन और कोविड महामारी को क़ाबू करने में बदइंतज़ामी का असर सीधे उन पर पड़ने लगा। टेलीविजन और अख़बारों में अब मोदी की कमियाँ गिनाने वाले ये लोग भारतीय लोकतंत्र के लिए चुनौती बन चुकी दक्षिणपंथी ज़हर के लिए भी पूरी तरह ज़िम्मेदार हैं।

पिछले कुछ वक़्त से, मुसलमान हिन्दू राष्ट्र, या हिन्दू गणराज्य में अपने मुस्तक़बिल के बारे में सोच रहे हैं। मेरा मानना है कि ऐसा निज़ाम हमसे सिर झुकाकर सब कुछ मान लेने की माँग करेगा। हमें हर तरह से कमज़ोर कर देगा और सरेआम बेइज़्ज़त करेगा। भारतीय मुसलमान को उस मॉडल को सहन करना पड़ेगा, जो कश्मीर में, गुजरात में, असम में लागू किया गया है: अधीनता, अलगाव और समय-समय पर हिंसा। उन सबकी तरह ही, भारत के बाकी मुसलमानों को क़ानून की हिफ़ाज़त के दायरे से बाहर रहना सीखना होगा। मुसलमानों की बेबसी और मजबूरी, विजयी हिंदू जनता के गर्व को खाद-पानी देगी। मुसलमान देह को तहस-नहस करने की ताक़त,  उनकी साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं की नींव है।

मोदी ने हम सभी को हमारी तात्कालिक पहचान तक सीमित कर दिया है। मुसलमानों के रूप में, हम अपने वजूद का ख़तरा महसूस करते हैं। यही बात बाकी सभी ख़्वाहिशों पर भारी पड़ती है। उन ख़्वाहिशों को कुचल देती है। हम कभी ख़ुद को भारत में इज़्ज़त के साथ ईमानदार ज़िंदगी के हक़दार महसूस करते थे। यह सपना अब टूट सा गया है; और इस बात को नज़रंदाज़ करना अब मुमकिन नहीं है।  मुझे यह सोच-सोचकर गहरा सदमा पहुँचता है कि मेरा देश मुझे कभी भी त्याग सकता है। मेरी मातृभूमि मुझसे बेवफा हो गयी है। इस सच्चाई के बारे में बात करना बहुत तकलीफ़देह है। क्योंकि हम भारत के ख़्याल के ज़िंदा रहने की उम्मीद बरकरार रखना चाहते हैं। शायद, हम पूरी तरह से नहीं समझ सकते कि इस उम्मीद की मौत का क्या मतलब है।


 

[1] नाम बदल दिया गया है।