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खाली पेट और यूट्यूब पर शिक्षा

भारत में ई-लर्निंग की कड़वी सच्चाई

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Translated into the Hindi by Prabhat Bharat

“अगर मैं कॉलेज गया होता तो आज मैं पॉयलट होता। तुम्हें क्या लगता है मैं इस तरह का काम कर रहा होता?” 84-वर्षीय शमशुद्दीन मुल्ला के इन शब्दों में अफ़सोस है, यह समझना गलत होगा। शमशुद्दीन कई तरह के बोरवेल पंप, मिनी एक्सकैवेटर, डीज़ल इंजन की मरम्मत कर सकता है; दक्षिण भारत में कर्नाटक के एक गाँव में अपने घर पर ही वह कृषि यंत्रों के रखरखाव के लिए एक SOS सेंटर चलाता है। सत्तर साल से भी ज़्यादा समय से वह कई टूटे-फूटे पुराने इंजनों की मरम्मत करके उनमें जान फूँक रहा है, जिनमें से कुछ को तो ब्रिटिश बाहर से भारत लाए थे। और बेलगावी जिले में वह अकेला मास्टर मेकैनिक है जो यह काम कर सकता है। वह गर्व के साथ कहता है, “जो लोग इंजीनियर हैं, वो भी इन इंजनों को आसानी से ठीक नहीं कर सकते।”

फिर भी वो सोचता है कि काश उसके पास एक डिग्री होती। उसने शुरुआत तो की थी। 1940 के दशक में शमशुद्दीन ने सरकारी स्कूल में तीन साल गुजारे थे, पहली क्लास पास भी कर ली थी जब गरीबी के चलते मजबूरन उसे स्कूल छोड़ना पड़ा। ऐसी उदास कहानी भारत में आज भी हर जगह आपको मिलेगी। निःशुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 के द्वारा शिक्षा को मूलभूत अधिकार और 6-14 वर्ष तक सरकारी स्कूली शिक्षा को निःशुल्क बनाने के बावजूद ग्रामीण भारत में 2017-18 में प्राथमिक स्तर पर ड्राप आउट दर 10.6% तक ऊँची थी।

एक पीढ़ी की पूरी बचत के सहारे जैसे-तैसे गाँव के जर्जर स्कूलों में दाखिल हुए कितने पहली-पीढ़ी के शिक्षार्थी अब स्कूल छोड़कर खेतों और खतरनाक फ़ैक्टरियों में वापस जाने के लिए विवश हो जाएँगे?

स्कूल छोड़ने के बाद शमशुद्दीन ने अपने गाँव में ही एक मेकैनिक के साथ इंजन की मरम्मत का काम करना शुरू कर दिया। इससे उसकी दो जून की रोटी भर कमाई हो जाती थी। आज सात दशकों के बाद कुल कमाई के काफ़ी बढ़ जाने के बाद भी उसकी आर्थिक हालत कुछ ज़्यादा नहीं सुधरी है। (1940 के दशक में मेकैनिक के साथ काम करने पर महीने में उसे आज के हिसाब से 30 रुपये मिलते थे; आज भी वह महीने में लगभग 4000 रुपये ही कमा पाता है।) आर्थिक गतिशीलता की इसी कमी के कारण भी शमशुद्दीन चाहता है कि वह कॉलेज गया होता। एक डिग्री का कोई और फ़ायदा हो ना हो, वह उसे एक अच्छी आमदनी वाली सफेदपोश नौकरी तो पक्का दिला ही देती। जिस तरह का कौशल वाला काम वह करता है, भारत में उसे खुले तौर पर काफ़ी कम आँका जाता है। और फिर जाति की भी बात है। सदियों से चले आ रहे काम-धंधे पर आधारित कठोर सामाजिक अलगाववाद के कारण इस पिछड़े देश में “श्रम की गरिमा” के सिद्धांत का शायद ही कोई अस्तित्व है। कठोर सच तो ये है कि लोग शमशुद्दीन के काम को नीचा इसलिए देखते हैं क्योंकि वह काम अपने हाथों से करता है – कई बार काले-मैले तेल से सने हाथों से।

पिछले तीन सालों में मैंने शमशुद्दीन जैसे बुज़ुर्ग ग्रामीण हुनरकारों और कारीगरों के साथ काफ़ी समय गुजारा है। मैंने हथकरघा-वालों, जुलाहों, मूर्तिकारों, लोहारों, ताड़ी इकट्ठा करने वालों, पारम्परिक चप्पल बनाने वालों… से बातचीत की है। ये स्वाभिमानी पुरुष और औरतें हैं जिनमें से कई उन पारम्परिक शिल्पकलाओं के आखिरी संजीदे कलाकार हैं जो धीरे-धीरे ग़ायब होती जा रही हैं जैसे-जैसे जीवनशैली बदल रही है, बाज़ार चीन के रेडीमेड सामान से भरे पड़े हैं, लोगों का गाँवों से शहरों की ओर पलायन जारी है, और राज्य इनके लिए किसी भी प्रकार के वित्तीय सहयोग की बात नहीं सोच रहा। और फिर भी हमेशा इनकी कहानियों में एक अवसर के खोने का ग़म है—शिक्षा से वंचित रह जाने का। वो शिक्षा की सीढ़ी चढ़ना चाहते थे जो आधुनिक अर्थव्यवस्था में उपजीविका का एकमात्र जरिया है। लेकिन वो उस सीढ़ी पर चढ़ नहीं पाए, क्योंकि वह सीढ़ी टूटी हुई थी।


मैंने इन मास्टर कारीगरों के बारे में सोचा जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 24 मार्च को अपने कुनियोजित कोरोना-वायरस लॉकडाउन की घोषणा की, जो 10 हफ़्तों तक खिंचता रहा। मुझे वो काम-धंधे दिखे जो हमारी भयावह और अरक्षित अर्थव्यवस्था में जल्द ही डूब जाएँगे—अब तक 12.2 करोड़—और मैं सोच रहा था कि इन नए बेरोज़गारों के परिवार-बच्चों का क्या होगा। एक पीढ़ी की पूरी बचत के सहारे जैसे-तैसे गाँव के जर्जर स्कूलों में दाखिल हुए कितने पहली-पीढ़ी के शिक्षार्थी अब स्कूल छोड़कर खेतों और खतरनाक फ़ैक्टरियों में वापस जाने के लिए विवश हो जाएँगे? कितने बच्चे जो मुफ़्त के दोपहर के खाने के लिए—जिसे मध्याह्न भोजन योजना के नाम से जाना जाता है—स्कूल जाते हैं अब भूखे रह जाएँगे? कितने बच्चों को अपने पूर्वजों के अपमानजनक काम की ओर लाचार होकर वापस जाना होगा जिनके लिए शिक्षा ही जाति से बँधे व्यवसाय से निजात पाने की अकेली उम्मीद थी? सबसे अच्छे समय में भी हमारी सरकारी शिक्षा व्यवस्था, जहाँ हमेशा पैसे और स्टाफ की तंगी रही है, सबसे ज़रूरतमंदों के लिए काम नहीं करती। अब इस महामारी का सामना यह कैसे करेगी?

जवाब जाहिर है – बिलकुल ही नहीं कर पाएगी। घरों तक भोजन पहुँचाने की योजना को प्राथमिकता देने की जगह (हाँलाँकि कुछ राज्यों ने इस दिशा में काम किया है), या ऑफ़लाइन शैक्षणिक संसाधनों के लिए बजट को बढ़ाने की जगह, या थोड़ी बहुत समझदारी और मानवीयता के आधार पर कुछ भी करने की जगह, मानव संसाधन विकास मंत्रालय का गरीबों की समस्याओं के लिए एक बड़ा समाधान रहा है – ई-लर्निंग।

यह योजना कितनी बेवक़ूफ़ी और बदसमझी वाली है, यह समझने के लिए आपको थोड़ा यह जानना होगा कि साधारण हालात में भारत के गाँवों में सरकारी स्कूल किस तरह चलते हैं। मेरी रिपोर्टिंग के दौरान मैंने जो ग्रामीण सरकारी स्कूल देखे, उनमें से अधिकतर में मूलभूत सुविधाएँ भी खस्ता हालत में हैं। विज्ञान-प्रयोगशालाओं और शिक्षण-सामग्री की बात ही ना करें, मैंने ऐसे स्कूल देखे हैं जहाँ बेंच, ब्लैकबोर्ड और यहाँ तक कि पीने के पानी की भी व्यवस्था नहीं है। अक्सर अलग-अलग कक्षाओं के छात्रों को एक ही कमरे में कोंच कर बिठा दिया जाता है (ऐसी स्थिति में सोशल डिस्टेंसिंग तो असंभव ही होने के कारण स्कूलों को वापस खोलने की योजनाएँ और भी मुश्किल नज़र आती हैं)। सफ़ाई कर्मचारी नगण्य हैं—उनके लिए पैसे अगर कभी आवंटित हुए भी होंगे तो स्थानीय अफ़सरों ने खा लिए होंगे—और क्लास ख़त्म होने के बाद छात्रों से स्कूल-परिसर की सफ़ाई तो करवाई जा सकती है। कभी-कभी गाँव के प्राधिकारी क्लासरूम में पुराने कृषि-संयंत्र या यहाँ तक कि रद्दी सामान भी रखवा देते हैं। सबसे खेदजनक बात है कि साफ़ शौचालयों की कमी के कारण बच्चियों को अक्सर स्कूल छोड़ना पड़ जाता है।

इनमें न तो फेस-टु-फेस क्लास की व्यवस्था थी, और न ही कोई ऑनलाइन प्लेटफार्म, यहाँ तक कि कोई विस्तार से बनाए गए पावरपॉइंट्स भी नहीं थे।

अब जरा ग्रामीण और शहरी भारत के बीच विशाल डिजिटल असमानता को भी समझ लें। केवल 4.4 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों के पास एक कंप्यूटर है, और 15 प्रतिशत से भी कम लोग इंटरनेट से जुड़े हैं। सबसे सस्ता मोबाइल इंटरनेट प्लान भी महीने के लगभग 400 रूपए का आता है। दिहाड़ी मज़दूर भला कैसे यह खरीद पाएँगे जब बड़ी मुश्किल से तो बस अपना पेट भर पाते हैं? आज की कीमत में 400 रूपए से तेरह किलो गेहूँ खरीदा जा सकता है जिससे चार सदस्यों के एक परिवार का महीने का गुजारा चल सकता है। ई-लर्निंग के चलते तबदीली से ग्रामीण छात्रों को किस तनाव का सामना करना पड़ेगा इसका एक भयावह उदाहरण जून के पहले सप्ताह में दिखा जब केरल में एक दसवीं कक्षा की एक दलित किशोरी छात्रा ने आत्महत्या कर ली क्योंकि ऑनलाइन लर्निंग उसकी पहुँच के बाहर थी। उस समय तक केरल सरकार ने यूट्यूब और अपने चैनल काइट विक्टर्स के जरिए ऑनलाइन क्लासेज शुरू कर दी थीं।

भारत के पश्चिमी राज्य महाराष्ट्र, जहाँ मैं रहता हूँ, में मैंने ख़ुद ग्रामीण इलाकों में महामारी ई-लर्निंग के कई उपक्रमों की बुरी हालत देखी है। लॉकडाउन की घोषणा के बाद कोल्हापुर शहर के आसपास के सरकारी स्कूलों के कई शिक्षकों ने अपने “ई-लर्निंग मॉडल्स” निकाल दिए। इनमें न तो फेस-टु-फेस क्लास की व्यवस्था थी, और न ही कोई ऑनलाइन प्लेटफार्म, यहाँ तक कि कोई विस्तार से बनाए गए पावरपॉइंट्स भी नहीं थे। बस शिक्षकों ने एक बड़ा सा व्हाट्सएप्प ग्रुप बना लिया जिसमें छात्रों के अभिभावकों को जोड़ दिया। इतना करने के बाद उन्होंने उस ग्रुप में “शैक्षणिक” यूट्यूब लिंक्स की झड़ी लगा दी। छात्रों को उन वीडिओज़ को देखकर, उनमें दिए गए काम को पूरा कर, अपने होमवर्क की तस्वीरें भेजने तो कह दिया गया। इसके साथ दिन की शिक्षा पूरी हो गई।

अधिकतर छात्रों को तो स्पष्ट रूप से यह कक्षा कम एक क्रिया-कलाप ज़्यादा लगा। कइयों ने तो उन व्हाट्सएप्प संदेशों को बस नज़रअंदाज़ कर दिया। मैंने कई को गाँव के कुओं में तैरते और बाहर खेलते पाया। शायद इस तरह उन्होंने ज़्यादा सीखा।


बच्चे अपने यूट्यूब की क्लासेज से कैसे काम कर रहे हैं, यह समझने के लिए मैंने कोल्हापुर के ढाकाले गाँव में रहने वाले एक सात-वर्षीय दलित छात्र सोहम सोनावणे के माता-पिता से बातचीत की। सोहम का पिता रवींद्र अपने घर से 33.5 मील दूर एक ढाबे में काम करता था। 20 मार्च को उसे कम से कम दो सौ घंटों के काम की तनख़्वाह के बिना ही काम से निकाल दिया गया (भारत में इस तरह की झाँसापट्टी आम बात है जहाँ अधिकाँश लोग तथाकथित “अनौपचारिक क्षेत्र” में काम करते हैं जिसमें श्रमिकों की सुरक्षा का कोई विधान नहीं है)। जब तक वह घर लौटा उसके स्मार्टफोन में इंटरनेट रिचार्ज ख़तम हो चुका था।

लगभग इसी दौरान पास के एक शहर में पहला कोविड मरीज पाया गया और स्थानीय नगरपालिका परिषद ने एक सप्ताह के लिए कर्फ्यू लगा दिया जिससे उस क्षेत्र की सारी गतिविधियों पर रोक लग गई। रवींद्र को लगा इससे उसके बेटे की शिक्षा बस ख़तम हो सकती है, और इसलिए उसने अपने समाज के एक साथी विशाल को सोहम को अपना फ़ोन देने के लिए मना लिया। फ़ोन मिलने के बाद सोहम अपना काम करने बैठा। उसके पहले पाठ में उसे तस्वीरों की एक शृंखला दिखाई गई और उसे उन्हें अँग्रेजी में पहचानने को कहा गया। उसने मुझे बताया पहली तस्वीर एक सिंह की थी। पर उसे उसका अँग्रेजी नाम पता नहीं था, फ़ोन पर उसे जल्दी टाइप कैसे करना है वो तो दूर की बात थी। सोहम अपने गाँव के सरकारी बालवाड़ी में पढ़ता है जहाँ उसने तीन सालों में 2400 घंटों से ज़्यादा समय बिताया है। लेकिन फिर भी वह अपना नाम अँग्रेजी में नहीं लिख सकता था। शिक्षक ने शायद ही उस पर कुछ ध्यान दिया था। फिर उसके जैसे बच्चे रोज चार घण्टे बालवाड़ी में कर क्या रहे थे? विशाल ने मुझे बताया, “ज़्यादातर बच्चे कोई ध्यान नहीं देते क्योंकि उन्हें वह काफ़ी उबाऊ लगता है। वो बस मध्याह्न का भोजन करके घर वापस आ जाते हैं।”

शिक्षा का जो ढाँचा उभरा है वह देश की मूल समस्याओं के प्रति उदासीन रहा है — गरीबी, पितृसत्ता, जातिवाद, इत्यादि।

आज नहीं तो कल सोहम स्कूल छोड़ देगा। उसकी कहानी उन 6.2 करोड़ छह से अट्ठारह साल के बीच के बच्चों के तकदीर की भी है जो एक हाल के राष्ट्रीय शिक्षा नीति की रिपोर्ट के अनुसार 2015 में किसी स्कूल में दाखिल नहीं थे। यह रिपोर्ट यह भी स्वीकार करती है कि सरकारी स्कूलों के कई छात्रों में पाँचवीं कक्षा तक भी पढ़ने-लिखने और गणना के मूलभूत कौशल की कमी थी और यह उनके स्कूल छोड़ने का एक प्रमुख कारण है। आज तो सोहम उन करोड़ों भारतीय बच्चों में से एक है जिन्हें मौजूदा शिक्षा प्रणाली से कोई लाभ नहीं पहुँचा था। और अब इन बच्चों को उन संभ्रांत नीति निर्धारकों के कठोर फ़ैसलों का बोझ ढोना पड़ेगा जिन्हें ग्रामीण भारत के बारे में कुछ पता नहीं और परवाह भी नहीं।

हाँलाँकि भारत में शमशुद्दीन के बचपन के समय से सरकारी स्कूलों की संख्या तो निश्चय ही बढ़ गई है, लेकिन शिक्षा का जो ढाँचा उभरा है वह देश की मूल समस्याओं के प्रति उदासीन रहा है — गरीबी, पितृसत्ता, जातिवाद, इत्यादि। भारत जैसे जटिल देश में कोई एक नीति सबके लिए कभी सही नहीं हो सकती, और ख़ासकर तब जब वो पाश्चात्य सामाजिक अवस्थाओं पर आधारित हो। नब्बे के दशक से जो नवउदारवादी सुधार देश में छा गए हैं, उसके कारण शिक्षा का तेजी से निजीकरण हुआ है जिसने शमशुद्दीन जैसे कारीगरों के पोते-पोतियों के लिए उच्च-शिक्षा को और भी दुर्लभ बना दिया है।

विश्व के विकासशील देशों में हर जगह इस कहानी का कोई रूप दोहराया जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र की एक मार्च 2020 रिपोर्ट के अनुसार 166 देशों ने स्कूलों को बंद करने का निर्णय ले लिया था जिसका प्रभाव 152 करोड़ छात्रों पर पड़ा है। लगभग 6.02 करोड़ शिक्षक अब कक्षाओं में नहीं हैं। 120 देशों के 32 करोड़ प्राथमिक विद्यालय के छात्र इससे प्रभावित हुए हैं। यह रिपोर्ट यह चेतावनी देती है, “शिक्षा में लगातार खलल से बाल श्रम और बाल विवाह में बढ़ोतरी हो सकती है जो विकासशील देशों की संवृद्धि के लिए और ज्यादा रोड़े डाल सकता है।”